शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

समसामयिक : Zingoism

समसामयिक : भावना और अनुभूति 
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दो प्रश्न मेरे मन हैं :
1. कोई राष्ट्र क्यों टूटता है?
2. कोई राष्ट्र क्यों टूट रहा है?
इन दो प्रश्नों में से पहला तो एक सामान्य प्रश्न है जिसका जवाब शायद हर व्यक्ति अपने ढंग से दे सकता है जो अख़बार पढ़ता है, रेडियो सुनता है, टीवी देखता है, या किसी काम से यहाँ वहाँ आता-जाता है ।
सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि दोषरहित और त्रुटिरहित हो यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । संक्षेप में जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन) और अनुभूति (फ़ीलिंग) कह सकते हैं । भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और विलीन होती रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है  या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रियास्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम ’अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं या वे केवल एक और नया विभ्रम भर होती हैं ?
कोई राष्ट्र क्यों टूटता है?
क्या कोई राष्ट्र टूट रहा है? 
’राष्ट्र' की धारणा का आधार ऐसे ही कुछ लोगों की सामुदायिक गतिविधि है जो स्वयं को किसी तथाकथित धर्म या परंपरा का अनुयायी कहते हैं । इसलिए कोई राष्ट्र नामक कोई सत्ता अथवा परिकल्पना (जिसे देश / राष्ट्र / नेशन कहा जा सकता है) या ऐसी कोई राजनीतिक-सत्ता, उसकी मूल-शक्तियाँ इतिहास का विषय है। अब यदि राष्ट्र की परंपरा के इतिहास को देखें तो यह देखना आसान होगा कि क्या अपने-आपको किसी धर्म या परंपरा (tradition) का अनुयायी घोषित करनेवाली सभी राजनीतिक सत्ताएँ निरपवाद रूप से विखंडित ही नहीं होती चली जाती हैं / होती गई हैं? कोई परंपरा धर्म है या धर्म परंपरा है या नहीं, यहाँ यह प्रश्न गौण है, मूल विचारणीय प्रश्न यह है कि परंपरा के रूप में क्या किसी भी धर्म में ही कहीं ऐसे कारक-तत्व (फ़ैक्टर्स) तो नहीं होते जो इसे अपनानेवालों में,  या कहें, इसके अनुयायियों में, परस्पर विभाजन के बीज बोते हों? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो शायद हमें ’क्या कोई टूट रहा है?' या  'कोई राष्ट्र क्यों टूटता है?', इस प्रश्न को समझने में सहायता मिल सकती है । धर्म या परंपरा क्या है, दोनों एक है, या भिन्न भिन्न चीज़ें है, या दोनों ही नहीं है, ... यहाँ इस बारे में न तो कोई मत दिया जा रहा है, न ही कोई प्रश्न उठाया जा रहा है ... किन्तु यदि  किसी राष्ट्र की स्थापना ही अलगाववाद के एक प्रकार की तरह हुई हो, तो क्या उसकी बुनियाद ही विखंडन पर टिकी हुई नहीं होती? इस प्रकार यह राष्ट्र कहा जानेवाला समुदाय क्या स्वयं ही  अपने-आपको शेष विश्व से अलग-थलग नहीं करने लगता है?
और, क्या कोई भी राष्ट्र (नामक राजनीतिक-सत्ता जिसे कुछ लोग एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) उसी क्रम की अगली कड़ी नहीं होता?
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निम्न पंक्तियों का तात्पर्य ग्रहण करने पर हम राष्ट्रवाद के भिन्न भिन्न अर्थ समझ सकते हैं। 
"वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता" : 
हम राष्ट्र की भावना को जागृत करनेवाले पुरोहित हैं।
देवी अथर्वशीर्ष में परमेश्वरी अपने स्वरूप को उद्घाटित करती हुई कहती हैं :
"अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम।"
इस प्रकार भारतमाता के आध्यात्मिक स्वरूप की पुष्टि वेद भी करते हैं । क्योंकि राष्ट्र के स्वरूप को अन्यत्र कहीं इस प्रकार से न तो परिभाषित किया गया है, न धारणात्मक आधार पर ही इस प्रकार से व्यक्त किया गया है।
"अहं सुवे पितरमस्यमूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।"
य एवं वेद।
शिव अथर्वशीर्ष के मंत्र
"मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत्।"
"मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः।"
'प्रथमा यज्ञियानाम' से स्पष्ट ही है कि इस (राष्ट्रयज्ञ) के पुरोहित हम ही हैं।
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शिव और उसकी शक्ति को ही क्रमशः परमेश्वर तथा देवी / राष्ट्र के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है। 
इसे और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए :
क्षेमराज-विरचित 'प्रत्यभिज्ञाहृदय' ग्रंथ की सहायता ली जा सकती है।
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