सोमवार, 29 मार्च 2021

पाठ और अनुवाद

बहुत पहले से मुझे लगता रहा है कि मातृभाषा को छोड़कर किसी भी भाषा के किसी भी ग्रंथ का अनुवाद एक कठिन और किसी हद तक एक अनावश्यक कार्य है। विशेषतः तब, जब आपने उस दूसरी भाषा के माध्यम से शिक्षा न प्राप्त की हो। 

उस दूसरी या तीसरी भाषा को यदि आपने मातृभाषा जैसे ही परिचित सामाजिक वातावरण में सीखा हो, तो यह अनुवाद शायद स्वाभाविक और प्रामाणिक भी हो सकता है। किन्तु यदि ग्रंथ किसी समुदाय-विशेष के विश्वास आदि से जुड़ा हो, तब तो यह कार्य और भी अधिक दुरूह हो जाता है।

सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि हमें उस भाषा की उस ग्रंथ की शब्दावलि के एक एक शब्द, और मूल अवधारणाओं के लिए किसी दूसरी भाषा के सन्निकटतम समानार्थी शब्दों का चुनाव करना होता है, या उन्हें गढ़ना / ढालना पड़ सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में मूल ग्रंथ का अभिप्राय शायद ही प्रामाणिक रूप से यथावत् संप्रेषित हो पाता होगा। 

यह समस्या तब और विकट हो जाती है जब किसी समुदाय की आस्थाओं, सिद्धान्त आदि के तात्पर्य के बारे में स्वयं उस समुदाय के अनुयायियों के मध्य ही सामञ्जस्य न हो। 

कोई भी समुदाय अपने विश्वासों, आस्थाओं, परंपराओं आदि को 'धर्म' कह सकता है, किन्तु इस प्रकार के अनुवाद कितने और कहाँ तक प्रामाणिक हैं, यह प्रश्न तो विचारणीय है ही। क्योंकि विभिन्न मतों के विश्वासों, आस्थाओं आदि के बीच इतने गहरे विरोधाभास होते हैं कि कुछ ही लोग उनमें परिस्थितियों और बाध्यताओं के दबाव में तालमेल कर सकते हैं।

इसलिए जब मुझे लगा कि "रामहृदय" को ब्लॉगर में पोस्ट करूँ,  तो मैंने अनुभव किया कि इसका अनुवाद करने का कार्य न केवल अनुचित, बल्कि अनावश्यक भी है।

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