मंगलवार, 10 जनवरी 2023

संदर्भ : अमृतानुभव / अनुभवामृत

विचार और विचारक  (Thought and Thinker)

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श्री जे.कृष्णमूर्ति के साहित्य का यह एक विशिष्ट आधार-बिन्दु, अथवा सूत्र है।

जब मैंने संत ज्ञानेश्वर-कृत अमृतानुभव / अनुभवामृत को हिन्दी तथा संस्कृत में अनूदित (अनु-उदित) करने का प्रयास किया तो एक दिन मेरा ध्यान इस तथ्य पर गया कि विचार शक्ति है, और विचारकर्ता उस शक्ति का एक रूप। अर्थात् विचार ही विचारक है। दूसरी ओर, विचारक (की मान्यता / कल्पना) भी विचार ही तो है। विचारक और विचार जिस भान / बोध (awareness) में व्यक्त और अव्यक्त होते हैं वह भान / बोध, Intelligence विचारगम्य नहीं है। इसलिए विचार उसका आकलन नहीं कर सकता। 

इस प्रकार से संत ज्ञानेश्वर ने शिव-शक्ति समावेशन के अध्याय की रचना के माध्यम से जिस शैली में शक्ति और शिव के अनन्य होने के सत्य का जो वर्णन किया, वह अपने आपमें अनूठा और मर्मग्राह्य है, जबकि श्री जे कृष्णमूर्ति ने 'विचार और विचारक' के आधार पर जिस शैली में जो कुछ भी कहा, उसे किसने और कितना समझा होगा यह तो उसे ही पता होगा।

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आज वर्षों बाद पुनः मेरे अपने इस पोस्ट पर मेरा ध्यान गया तो आश्चर्य हुआ। 

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शिव-शक्ति समावेशन-नाम प्रथमोऽध्याय

कृपया इसे इसी ब्लॉग के 31 अगस्त 2012 के मेरे पोस्ट में देखिए!

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बुधवार, 28 दिसंबर 2022

~~ भवान्याष्टकम् ~~

।।भवं भवानी सहितं नमामि।।

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न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता। 

न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।।

न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव। 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।१।।

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हे भवानी!  पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, भृत्य, स्वामी, स्त्री, विद्या और वृत्ति---इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो!।।१।।

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1. No father, no mother, no friend, no brother,

No son, no daughter, no servant, no master,

No wife, no skill, nor occupation,  I have!

You alone are my retreat, whole and sole!

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भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः। 

पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः। 

कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहम्।

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।२।।

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मैं अपार भवसागर में पड़ा हुआ हूँ, महान् दुःखों से भयभीत हूँ, कामी, लोभी, मतवाला तथा घृणायोग्य संसार के बन्धनों में बँधा हुआ हूँ,  हे भवानि ! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो!।।२।।

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2. Fallen into this ocean endless, 

That is this world miserable,

Frightened of the great calamities,

Full of lust, greed, passion; -I'm!

Arrested into the shackles,

Of this despicable world.

Now, O Bhavani! O Great Mother Divine!

You alone are my retreat, Whole and sole!

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न जानामि ध्यानं न च ध्यानयोगं

न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्। 

न जानामि पूजां न च न्यासयोगम्।

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।३।।

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हे देवि! मैं न तो दान देना जानता हूँ और न ही ध्यानमार्ग का ही मुझे पता है, तन्त्र और स्तोत्र-मन्त्रों का भी मुझे ज्ञान नहीं है, पूजा तथा न्यास आदि की क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूँ, अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो!।।३।।

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3. O Mother Celestial!

I Don't know how to donate,

Neither I  do, how to meditate,

Nor know the practice of tantra:

Reciting of the hymn or mantra!

Nor do I how to pray and worship, 

Nor the secret, rirual of the nyaasa,

You alone are my retreat, Whole and sole!

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न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं

न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।

न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातः

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि!।।४।।

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न पुण्य जानता हूँ न तो मुझे तीर्थ का, और न मुक्ति का पता है, न प्रलय का! हे मातः! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात नहीं है, हे भवानि! अब केवल तुम्हीं मेरा सहारा हो।।४।।

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4. Neither I know the holy, virtue, 

Nor those pilgrims sacred, 

Ignorant of the liberation, 

I'm also of the deluge, dissolution,

O Mother Divine! 

Neither I know the devotion,

Nor do I observe the discipline;

O Bhavani, O Mother Divine!

You are alone my retreat, Whole and sole!

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कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः

कुलाचारहीनः कदाचारलीनः। 

कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम् 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।५।।

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मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहनेवाला, दुर्बुद्धि दुष्टदास, कुलोचित सदाचार से हीन, दुराचारपरायण, कुत्सित दृष्टि रखनेवाला और सदा दुर्वचन बोलनेवाला हूँ, हे भवानि! मुझ अधम की एकमात्र तुम्हीं गति हो ।।५।।

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5. Evil, wicked, living in abominable company,

Il-witted, slave to the evil,

Devoid of the customes of family and clan,

Indulging in the dirty, unholy practices,

Having evil eyes, speaking dirty tongue,

O Bhavani, Of this destitute, wretched me,

You are alone the retreat, Whole and sole! 

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प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं

दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्। 

न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।६।।

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मैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुरेश, सूर्य और चन्द्रमा, आदि किसी को भी नहीं जानता! हे शरणदात्री भवानि ! हे देवि! मेरी एकमात्र शरण तुम्हीं हो!।।६।।

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6. Brahma, Vishnu Mahesha or Indra,

The Sun-Lord, The Moon-God, neither,

Other than you, I  know no one else,

I'm ever so enshrined in your feet;

You are the retreat alone, Whole and sole! 

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विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे

जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये। 

अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी।।७।।

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हे शरण्ये!  तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश, जल, अनल, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के मध्य में सदा ही मेरी रक्षा करो, हे भवानि!  एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।।७।।

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7. O Shelter Supreme! All Through Quarrels,

In grief, sorrow, in lethargy, and in the lands not my own, In waters, fires, in mountains, In the forests and in my enemies and foe!

Protect me always O Mother Great!

You are the retreat alone, Whole and sole! 

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अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो

महाक्षीणदीनः सदाजाड्यवक्त्रः।

विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहम् 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।८।।

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हे भवानि! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण, रोगी, अत्यन्त दुर्बल, दीन, गूँगा, विपद्ग्रस्त और नष्ट हूँ, अब तुम्हीं एकमात्र मेरी गति हो।।८।।

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8. O Bhavani! O Mother Divine! 

Always I have been, ever so, Orphan,

Made so destitute and wretched,

Torn and worn out, assailed by age,

So Deceased, weak and dumb,

Victim of misfortune, distress, destroyed,

O Bhavani! At this juncture,

You are alone the retreat Whole and sole!

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Who Is "Bhavaani?"

She is the Mother Principle, the Intelligence, where from emanates and manifests the whole existence in all kinds and forms.

Our personal consciousness is but a hint to point out the Reality that She is.

"Bhavam Bhavaanee-sahitam namaami"

Is the aphorism (mantra), where Bhava is the Father-Principle and Bhavaanee is the Mother Principle.

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Dedicated to भवानी! 

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~~ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं भवान्याष्टकं सम्पूर्णम्।। ~~

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सोमवार, 29 मार्च 2021

पाठ और अनुवाद

बहुत पहले से मुझे लगता रहा है कि मातृभाषा को छोड़कर किसी भी भाषा के किसी भी ग्रंथ का अनुवाद एक कठिन और किसी हद तक एक अनावश्यक कार्य है। विशेषतः तब, जब आपने उस दूसरी भाषा के माध्यम से शिक्षा न प्राप्त की हो। 

उस दूसरी या तीसरी भाषा को यदि आपने मातृभाषा जैसे ही परिचित सामाजिक वातावरण में सीखा हो, तो यह अनुवाद शायद स्वाभाविक और प्रामाणिक भी हो सकता है। किन्तु यदि ग्रंथ किसी समुदाय-विशेष के विश्वास आदि से जुड़ा हो, तब तो यह कार्य और भी अधिक दुरूह हो जाता है।

सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि हमें उस भाषा की उस ग्रंथ की शब्दावलि के एक एक शब्द, और मूल अवधारणाओं के लिए किसी दूसरी भाषा के सन्निकटतम समानार्थी शब्दों का चुनाव करना होता है, या उन्हें गढ़ना / ढालना पड़ सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में मूल ग्रंथ का अभिप्राय शायद ही प्रामाणिक रूप से यथावत् संप्रेषित हो पाता होगा। 

यह समस्या तब और विकट हो जाती है जब किसी समुदाय की आस्थाओं, सिद्धान्त आदि के तात्पर्य के बारे में स्वयं उस समुदाय के अनुयायियों के मध्य ही सामञ्जस्य न हो। 

कोई भी समुदाय अपने विश्वासों, आस्थाओं, परंपराओं आदि को 'धर्म' कह सकता है, किन्तु इस प्रकार के अनुवाद कितने और कहाँ तक प्रामाणिक हैं, यह प्रश्न तो विचारणीय है ही। क्योंकि विभिन्न मतों के विश्वासों, आस्थाओं आदि के बीच इतने गहरे विरोधाभास होते हैं कि कुछ ही लोग उनमें परिस्थितियों और बाध्यताओं के दबाव में तालमेल कर सकते हैं।

इसलिए जब मुझे लगा कि "रामहृदय" को ब्लॉगर में पोस्ट करूँ,  तो मैंने अनुभव किया कि इसका अनुवाद करने का कार्य न केवल अनुचित, बल्कि अनावश्यक भी है।

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शनिवार, 27 मार्च 2021

संस्कृत रामहृदय

अध्यात्मरामायणे बालकाण्डे प्रथमः सर्गः

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यः पृथ्वीभरवारणाय दिविजैः संप्रार्थितश्चिन्मयः 

संजातः पृथ्वीतले रविकुले मायामनुष्योऽव्ययः ।

निश्चक्रं हतराक्षसः पुनरगाद् ब्रह्मत्वमाद्यं स्थिरां 

कीर्तिं पापहरां विधाय जगतां तं जानकीशं भजे।। १

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं 

मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यमूर्तिम् ।

आनन्दसान्द्रममलं निजबोधरूपं 

सीतापतिं विदितत्त्वमहं नमामि।। २

पठन्ति ये नित्यमनन्यचेतसः 

शृण्वन्ति चाध्यात्मिकसंज्ञितं शुभम्। 

रामायणं सर्वपुराणसंमतं 

निर्धूतपापा हरिमेव यान्ति ते।। ३

अध्यात्मरामायणमेव नित्यं

पठेद्यदीच्छेद्भवबन्धमुक्तिम्। 

गवां सहस्रायुतकोटिदानात् 

फलं लभेद्यः शृणुयात्स नित्यम्।। ४

पुरारिगिरिसंभूता श्रीरामार्णवसङ्गता। 

अध्यात्मरामगङ्गेयं पुनाति भुवनत्रयम्।। ५

कैलासाग्रे कदाचिद्रविशतविमले मन्दिरे रत्नपीठे

संविष्टं ध्याननिष्ठं त्रिनयनमभयं सेवितं सिद्धसङ्घैः ।

देवी वामाङ्कसंस्था गिरिवरतनया पार्वती भक्तिनम्रा 

प्राहेदं देवमीशं सकलमलहरं वाक्यमानन्दकन्दम्।। ६

पार्वती उवाच :

नमोऽस्तु ते देव जगन्निवास सर्वात्मदृक् त्वं परमेश्वरोऽसि ।

पृच्छामि तत्त्वं पुरुषोत्तमस्य सनातनं त्वं च सनातनोऽसि ।। ७

गोप्यं यदत्यन्तमनन्यवाच्यं वदन्ति भक्तेषु महानुभावाः ।

तदप्यहोऽहं तव देव भक्ता प्रियोऽसि मे त्वं वद यत्तु पृष्टम्।। ८

ज्ञानं सविज्ञानमथानुभक्तिवैराग्ययुक्तं च मितं विभास्वत्। 

जानाम्यहं योषिदपि त्वदुक्तं यथा तथा ब्रूहि तरन्ति येन।। ९

पृच्छामि चान्यच्च परं रहस्यं तदेव चाग्रे वद वारिजाक्ष। 

श्रीरामचन्द्रेऽखिललोकसारे भक्तिर्दृढा नौर्भवति प्रसिद्धा।। १०

भक्तिः प्रसिद्धा भवमोक्षणाय नान्यत्ततः साधनमस्ति किञ्चित्। 

तथापि हृत्संशयबन्धनं मे विभेत्तुमर्हस्यमलोक्तिभिस्त्वम् ।। ११

वदन्ति रामं परमेकमाद्यं निरस्तमायागुणसंप्रवाहम्। 

भजन्ति चाहर्निशमप्रमत्ताः परं पदं यान्ति तथैव सिद्धाः ।। १२

वदन्ति केचित्परमोऽपि रामः स्वाविद्यया संवृतमात्मसंज्ञम्। 

जानाति नात्मानमतः परेण सम्बोधितो वेद परात्मत्त्वम् ।। १३

यदि स्म जानाति कुतो विलापः सीताकृतेऽनेन कृतः परेण। 

जानाति नैवं यदि केन सेव्यः समो हि सर्वैरपि जीवजातैः।। १४

अत्रोत्तरं किं विदितं भवद्भिस्तद्ब्रूत मे संशयभेदिवाक्यम्।। १५

श्रीमहादेव उवाच :

धन्यासि भक्तासि परात्मनस्त्वं यज्ज्ञातुमिच्छा तव रामतत्त्वम्।

पुरा न केनाप्यभिचोदितोऽहं वक्तुं रहस्यं परमं निगूढम्।। १६

त्वयाद्य भक्त्या परिनोदितोऽहं वक्ष्ये नमस्कृत्य रघूत्तमं ते। 

रामः परात्मा प्रकृतेरनादिरानन्द एकः  पुरुषोत्तमो हि ।। १७

स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः ।

सर्वान्तरस्थोऽपि निगूढ आत्मा स्वमायया सृष्टमिदं विचष्टे।। १८

जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि ।

एतन्न जानन्ति विमूढचित्ताः स्वाविद्यया संवृतमानसा ये।। १९

स्वाज्ञानमप्यात्मनि शुद्धबुद्धे स्वारोपयन्तीह निरस्तमाये। 

संसारमेवानुसरन्ति ते वै पुत्रादिसक्ताः पुरुकर्मयुक्ताः।। २०

जानन्ति नैवं हृदये स्थितं वै चामीकरं कण्ठगतं यथाज्ञाः।

यथाप्रकाशो न तु विद्यते रवौ ज्योतिःस्वभावे परमेश्वरे तथा।

विशुद्धविज्ञानघने रघूत्तमेऽविद्या कथं स्यात्परतः परात्मनि।। २१

यथा हि चाक्ष्णा भ्रमता गृहादिकं विनष्टदृष्टेर्भ्रमतीव दृश्यते। 

तथैव देहेन्द्रियकर्तुरात्मनः  कृतं परेऽध्यस्य जनो विमुह्यति।। २२

नाहो न रात्रिः सवितुर्यथा भवेत् 

प्रकाशरूपाव्यभिचारतः क्वचित्।

ज्ञानं तथाज्ञानमिदं द्वयं हरौ 

रामे कथं स्थास्यति शुद्धचिद्घने ।।२३

तस्मात्परानन्दमये रघूत्तमे 

विज्ञानरूपे हि न विद्यते तमः। 

अज्ञानसाक्षिण्यरविन्दलोचने 

मायाश्रयत्वान्न हि मोहकारणम्।। २४

अत्र ते कथयिष्यामि रहस्यमपि दुर्लभम् ।

सीताराममरुत्सूनुसंवादं मोक्षसाधनम्।। २५

पुरा रामायण रामो रावणं देवकण्टकम् ।

हत्वा रणे रणश्लाघी सपुत्रबलवाहनम् ।। २६

सीतया सह सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां समन्वितः। 

अयोध्यामगमद्रामो हनूमत्प्रमुखैर्वृतः।। २७

अभिषिक्तः परिवृतो वसिष्ठाद्यैर्महात्मभिः ।

सिंहासने समासीनः कोटिसूर्यसमप्रभ।। २८

दृष्ट्वा तदा हनूमन्तं प्राञ्जलिं पुरतः स्थितम् ।

कृतकार्यं निराकाङ्क्षं ज्ञानापेक्षं महामतिम्।। २९

रामः सीतामुवाचेदं ब्रूहि तत्त्वं हनूमते।

निष्कल्मषोऽयं ज्ञानस्य पात्रं नौ नित्य भक्तिमान्।। ३०

ततो जानकी प्राह तत्त्वं रामस्य निश्चितम्।

हनूमते प्रपन्नाय सीता लोकविमोहिनी।। ३१

रामं विद्धि परं ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम्। 

सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सत्तामात्रमगोचरम्।। ३२

आनन्दं निर्मलं शान्तं निर्विकारं निरञ्जनम्। 

सर्वव्यापिनमात्मानं स्वप्रकाशमकल्मषम्।। ३३

मां विद्धि मूलप्रकृतिं सर्गस्थित्यन्तकारिणीम् ।

तस्य सन्निधिमात्रेण सृजामीदमतन्द्रिता ।। ३४

तत्सान्निध्यान्मया सृष्टं तस्मिन्नारोप्यतेऽबुधैः ।

अयोध्यानगरे जन्म रघुवंशेऽतिनिर्मले ।।३५

विश्वामित्रसहायत्वं मखसंरक्षणं ततः। 

अहल्या शापशमनं चापभङ्गो महेशितुः।। ३६

मत्पाणिग्रहणं पश्चाद्भार्गवस्य मदक्षयः। 

अयोध्यानगरे वासो मया द्वादशवार्षिकः।। ३७

दण्डकारण्यगमनं विराधवध एव च। 

मायामारीचमरणं मायासीताहृतिस्तथा ।।३८

जटायुषो मोक्षलाभः कबन्धस्य तथैव च।।

शबर्याः पूजनं पश्चात् सुग्रीवेण समागमः।। ३९

बालिनश्च वधः पश्चात्सीतान्वेषणमेव च।

सेतुबन्धस्यश्च जलधौ लङ्कायाश्च निरोधनम्।। ४०

रावणस्य वधो युद्धे सपुत्रस्य दुरात्मनः। 

विभीषणे राज्यदानं पुष्पकेण मया सह।। ४१

अयोध्यागमनं पश्चाद्राज्ये रामाभिषेचनम्। 

एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि।

आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि ।।४२

रामो न गच्छति न तिष्ठति नानुशोच-

त्याकाङ्क्षते त्यजति नो न करोति किञ्चित्। 

आनन्दमूर्तिरचलः परिणामहीनो 

मायागुणाननुगतो हि तथा विभाति।। ४३

ततो रामः स्वयं प्राह हनूमन्तमुपस्थितम् ।

शृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्।। ४४

अमावस्या यथा भेदस्त्रिविधो दृश्यते महान्। 

जलाशये महाकाशस्तदवच्छिन्न एव हि। 

प्रतिबिम्बाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नमः।। ४५

बुद्ध्यवच्छिन्नचैतन्यमेकं पूर्णमथापरम् ।

आभासस्त्वपरं बिम्बभूतमेवं त्रिधा चितिः।। ४६

साभासबुद्धेः कर्तृत्वमवच्छिन्नेऽविकारिणे ।

साक्षिण्यारोप्यते भ्रान्त्या जीवत्वं च तथाबुधैः।। ४७

आभासस्तु मृषा बुद्धिरविद्याकार्यमुच्यते ।

अवच्छिन्नं तु तद्ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पतः ।। ४८

अवच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते। 

तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्च साभासस्याहमस्तथा।। ४९

ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः ।

तदाविद्या स्वकार्यैश्च नश्यत्येव न संशयः।। ५०

एतद्विज्ञाय मद्भक्तो मद्भावायोपपद्यते। 

मद्भक्तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्। 

न ज्ञानं न च मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि।। ५१

इदं रहस्यं हृदयं ममात्मनो 

मयैव साक्षात्कथितं तवानघ।

मद्भक्तिहीनाय शठाय न त्वया

दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम् ।। ५२

श्रीमहादेव उवाच 

एतत्तेऽभिहितं देवी श्रीरामहृदयं मया। 

अतिगुह्यतमं हृद्यं पवित्रं पापशोधनम्।। ५३

साक्षाद्रामेण कथितं सर्ववेदान्तसङ्ग्रहं ।

यः पठेत्सततं भक्त्या स मुक्तो नात्र संशयः।। ५४

ब्रह्महत्यादिपापानि बहुजन्मार्जितान्यपि। 

नश्यन्त्येव न सन्देहो रामस्य वचनं यथा।। ५५

येऽतिभ्रष्टैऽतिपापी परधनपरदारेषु नित्योद्यतो वा। 

स्तेयी ब्रह्मघ्नमातापितृवधनिरतो योगिवृन्दापकारी। 

यः संपूज्याभिरामं पठति च हृदयं रामचन्द्रस्य भक्त्या ।

योगीन्द्रैप्यलभ्यं पदमिह लभते सर्वदेवैः पूज्यम्।। ५६

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इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे 

श्रीरामहृदयं नाम प्रथमः सर्गे।। 

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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

sensitivity: emotions / feelings.

संवेदनशीलता, भावना और अनुभूति
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सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि दोषरहित और त्रुटिरहित हो यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । संक्षेप में जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन) और अनुभूति (फ़ीलिंग) कह सकते हैं । भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और खोती  रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है  या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रियास्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम ’अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं या वे केवल एक और नया विभ्रम भर होती हैं ?
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समसामयिक : Zingoism

समसामयिक : भावना और अनुभूति 
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दो प्रश्न मेरे मन हैं :
1. कोई राष्ट्र क्यों टूटता है?
2. कोई राष्ट्र क्यों टूट रहा है?
इन दो प्रश्नों में से पहला तो एक सामान्य प्रश्न है जिसका जवाब शायद हर व्यक्ति अपने ढंग से दे सकता है जो अख़बार पढ़ता है, रेडियो सुनता है, टीवी देखता है, या किसी काम से यहाँ वहाँ आता-जाता है ।
सामान्य मनुष्य ’धारणाओं’ को हक़ीकत (यथार्थ) की तरह ग्रहण कर लेता है । हक़ीकत क्या है इसे जान पाना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि जिसे हम हक़ीकत समझते हैं वह अवश्य ही किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार, घटना या समय के परिप्रेक्ष्य में हुआ करती है । और वस्तु, व्यक्ति, विषय, स्थान, विचार, घटना या समय इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है । इसलिए हम हक़ीकत (यथार्थ) को नहीं, बल्कि इन सबके संबंध में प्राप्त जानकारी और राय को हक़ीकत समझ बैठते हैं ।
’वस्तुएँ’ शुद्धतः इन्द्रियगम्य भौतिक तथ्य होते हैं, जिनके बारे में भिन्न-भिन्न लोगों के बीच मतभेद नहीं होते । उनका भौतिक-सत्यापन भी किया जा सकता है । वे अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद या दुःखद भी हो सकते हैं । किंतु वह गौण है । दूसरी ओर ’व्यक्ति’, ’विषय’, ’स्थान’, ’विचार’, ’घटना’ या ’समय’ अमूर्त धारणा होते हैं जो बुद्धि के कार्यशील होने के बाद ही महत्वपूर्ण होते हैं । बुद्धिहीन मनुष्य को पशु कहने पर शायद ही किसी को आपत्ति हो । किंतु बुद्धि के सक्रिय होने पर बुद्धि दोषरहित और त्रुटिरहित हो यह न तो सबके लिए संभव है न स्वाभाविक ही है । प्रायः व्यक्ति का वातावरण, परिवार, समाज, व्यवहार करने तथा सोचने की परंपराएँ बुद्धि को उसके अपने स्वाभाविक ढंग से विकसित नहीं होने देते । बुद्धि को हम ’मन’ भी कह सकते हैं, और यह बुद्धि या मन हमारे लिए एक अमूर्त धारणा के सिवा और क्या हो सकता है? क्या इस बुद्धि या मन की प्रामाणिकता हमारे लिए किसी भौतिक तथ्य की तरह निर्विवाद और सुनिश्चित हो सकती है? किंतु जिसे बुद्धि / मन कहा जाता है उसके व्यावहारिक प्रयोग से इनकार भी नहीं किया जा सकता । संक्षेप में जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदन के स्थूल यन्त्र होती हैं, वैसे ही बुद्धि / मन संवेदन के सूक्ष्म तल पर कार्य करनेवाले उपकरण होते हैं । बुद्धि / मन से जुड़ी हमारी प्रतिक्रियाओं को हम भावना (इमोशन) और अनुभूति (फ़ीलिंग) कह सकते हैं । भावना और अनुभूति के बीच एक बारीक अन्तर यह किया जा सकता है कि भावना हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से उठती और विलीन होती रहती है, जबकि अनुभूति किसी बाह्य क्रिया का संवेदन तथा उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया होती है । यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली बोधजन्य प्रक्रिया भी हो सकती है  या हमारे पूर्व अनुभवों की स्मृति से जुड़ी कोई जटिल प्रक्रिया भी हो सकती है । संचित अनुभव हमारी भावनाओं को विरूपित कर सकता है और यदि हम इस बारे में सतर्क / सावधान नहीं हैं तो प्रायः कर ही देता है । इस प्रकार हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का पारस्परिक व्यवहार हमारे बुद्धि / मन को और भी असंतुलित / अस्वस्थ कर देता है । जिसका हमें अनुभव न हो उसके प्रति हममें कोई अच्छी या बुरी, सही या गलत भावना नहीं हो सकती । किसी वस्तु के संपर्क में आने पर, उसकी सुखद, दुःखद, प्रिय-अप्रिय अनुभूति ही हममें कोई भावना जगाती है । फिर इस अनुभूति की स्मृति और पुनरावृत्ति हमारे बुद्धि / मन में उस वस्तु के बारे में कोई पूर्वाग्रह स्थापित कर देते हैं । ऐसे असंख्य पूर्वाग्रह हमारे बुद्धि / मन को अत्यंत अस्थिर और विरूपित कर देते हैं और तब प्रतिक्रियास्वरूप असुरक्षा और भय की भावना हममें जन्म लेती है । तब हम ’अपने-जैसे’ प्रतीत होनेवाले लोगों में सुरक्षा और आशा की किरण देखते हैं । किंतु इसी आधार पर क्या ऐसे अनेक समुदाय भी अस्तित्व में नहीं आ जाते जिनके अनेक हित परस्पर विपरीत और विरोधी भी होते हैं ? परंपराएँ मनुष्य को वास्तव में क्या ऐसा ही कोई सुरक्षा-कवच प्रदान करती हैं या वे केवल एक और नया विभ्रम भर होती हैं ?
कोई राष्ट्र क्यों टूटता है?
क्या कोई राष्ट्र टूट रहा है? 
’राष्ट्र' की धारणा का आधार ऐसे ही कुछ लोगों की सामुदायिक गतिविधि है जो स्वयं को किसी तथाकथित धर्म या परंपरा का अनुयायी कहते हैं । इसलिए कोई राष्ट्र नामक कोई सत्ता अथवा परिकल्पना (जिसे देश / राष्ट्र / नेशन कहा जा सकता है) या ऐसी कोई राजनीतिक-सत्ता, उसकी मूल-शक्तियाँ इतिहास का विषय है। अब यदि राष्ट्र की परंपरा के इतिहास को देखें तो यह देखना आसान होगा कि क्या अपने-आपको किसी धर्म या परंपरा (tradition) का अनुयायी घोषित करनेवाली सभी राजनीतिक सत्ताएँ निरपवाद रूप से विखंडित ही नहीं होती चली जाती हैं / होती गई हैं? कोई परंपरा धर्म है या धर्म परंपरा है या नहीं, यहाँ यह प्रश्न गौण है, मूल विचारणीय प्रश्न यह है कि परंपरा के रूप में क्या किसी भी धर्म में ही कहीं ऐसे कारक-तत्व (फ़ैक्टर्स) तो नहीं होते जो इसे अपनानेवालों में,  या कहें, इसके अनुयायियों में, परस्पर विभाजन के बीज बोते हों? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो शायद हमें ’क्या कोई टूट रहा है?' या  'कोई राष्ट्र क्यों टूटता है?', इस प्रश्न को समझने में सहायता मिल सकती है । धर्म या परंपरा क्या है, दोनों एक है, या भिन्न भिन्न चीज़ें है, या दोनों ही नहीं है, ... यहाँ इस बारे में न तो कोई मत दिया जा रहा है, न ही कोई प्रश्न उठाया जा रहा है ... किन्तु यदि  किसी राष्ट्र की स्थापना ही अलगाववाद के एक प्रकार की तरह हुई हो, तो क्या उसकी बुनियाद ही विखंडन पर टिकी हुई नहीं होती? इस प्रकार यह राष्ट्र कहा जानेवाला समुदाय क्या स्वयं ही  अपने-आपको शेष विश्व से अलग-थलग नहीं करने लगता है?
और, क्या कोई भी राष्ट्र (नामक राजनीतिक-सत्ता जिसे कुछ लोग एक देश / राष्ट्र / नेशन कहते हैं) उसी क्रम की अगली कड़ी नहीं होता?
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निम्न पंक्तियों का तात्पर्य ग्रहण करने पर हम राष्ट्रवाद के भिन्न भिन्न अर्थ समझ सकते हैं। 
"वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता" : 
हम राष्ट्र की भावना को जागृत करनेवाले पुरोहित हैं।
देवी अथर्वशीर्ष में परमेश्वरी अपने स्वरूप को उद्घाटित करती हुई कहती हैं :
"अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम।"
इस प्रकार भारतमाता के आध्यात्मिक स्वरूप की पुष्टि वेद भी करते हैं । क्योंकि राष्ट्र के स्वरूप को अन्यत्र कहीं इस प्रकार से न तो परिभाषित किया गया है, न धारणात्मक आधार पर ही इस प्रकार से व्यक्त किया गया है।
"अहं सुवे पितरमस्यमूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।"
य एवं वेद।
शिव अथर्वशीर्ष के मंत्र
"मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत्।"
"मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः।"
'प्रथमा यज्ञियानाम' से स्पष्ट ही है कि इस (राष्ट्रयज्ञ) के पुरोहित हम ही हैं।
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शिव और उसकी शक्ति को ही क्रमशः परमेश्वर तथा देवी / राष्ट्र के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है। 
इसे और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए :
क्षेमराज-विरचित 'प्रत्यभिज्ञाहृदय' ग्रंथ की सहायता ली जा सकती है।
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बुधवार, 5 अक्टूबर 2016

मना सज्जना - समर्थ श्री रामदास महाराजकृत

मना सज्जना - समर्थ श्री रामदास महाराजकृत 
॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥
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गणाधीश जो ईश सर्वां गुणांचा ।
मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा ।
नमूं शारदा मूळ चत्वार वाचा ।
गमूं पंथ अनंत या राघवाचा ॥1
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मना सज्जना भक्तिपंथेसि जावें ।
तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावे ।
जनी निन्द्य तें सर्व सोडूनि द्यावे ।
जनी वन्द्य तें सर्व भावें करावें ॥2
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प्रभाते मनीं राम चिन्तीत जावा ।
पुढें वैखरी राम आधी वदावा ॥
सदाचार हा थोर सांडूं नये तो ।
जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो ॥3
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मना सज्जना
मना वासना दुष्ट कामा न ये रे ।
मना सर्वथा पापबुद्धी नको रे ॥
मना धर्मता नीति सोडूं नको रे ।
मना अन्तरीं सार विचार राहो ॥4
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मना सज्जना
मना पापसंकल्प सोडूनि द्यावा ।
मना सत्यसंकल्प जीवीं धरावा ।
मना कल्पना ते नको वीषयांची ।
विकारें घडे हो जनी सर्व ची ची ॥5
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नको रे मना क्रोध हा खेदकारी ।
नको रे मना काम नाना विकारी ।
नको रे मना लोभ हा अंगिकारूं ।
नको रे मना मत्सरू दंभ भारू ॥6
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मना श्रेष्ठ धारिष्ट जीविं धरावें ।
मना बोलणें नीच सोशीत जावें ।
स्वयें सर्वदा नम्र वाचे वदावें ।
मना सर्व लोकांसि रे नीववावें ॥7
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देहे त्यागिता किर्ति मागें उरावीं ।
मना सज्जना हेचि क्रिया धरावी ।
मना चंदनाचे परी त्वा झिजावें ।
परी अंतरीं सज्जना नीववावें ॥8
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मना सज्जना
नको रे मना द्रव्य तें पूढिलांचे ।
अति स्वार्थबुद्धी ने रे पाप साचे ।
घडे भोगणे पाप तें कर्म खोटे ।
न होता मनासारिखें दुःख मोठें ॥9
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सदा सर्वदा प्रीति रामीं धरावी ।
सुखाची स्वयें सांडि जीवीं करावीं ।
देहेदुःख तें सूख मानीत जावें ।
विवेकें सदा सस्वरूपी भरावें ॥10
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जगीं सर्वसूखी असा कोण आहे ।
विचारें मना तूंचि शोधूनि पाहें ।
मना त्वांचि रे पूर्वसंचीत केलें ।
तयासारखें भोगणें प्राप्त झालें ॥11
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मना मानसीं दुःख आणूं नको रे ।
मना सर्वथा शोक चिन्ता नको रे ।
विवेकें देहेबुद्धि सोडूनि द्यावी ।
विदेहीपणे मुक्ति भोगीत जावी ॥12
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मना सज्जना
मना सांग पां रावणा काय जालें ।
अकस्मात् तें राज्य सर्वे बुडालें ।
म्हणोनी कुडी वासना सांडी वेगीं ।
बळें लागला काळ हा पाठलागीं ॥13
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जिवा कर्मयोगे जनीं जन्म जाला ।
परी शेवटीं काळमूखीं निमाला ।
महाथोर ते मृत्यूपंथेचि गेले ।
कितीएक ते जन्मले आणि मेले ॥14
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मना सज्जना
मना पाहतां सत्य हे मृत्युभूमी ।
जितां बोलती सर्वही जीव मी मी ।
चिरंजीव हे सर्वही मानिताती ।
अकस्मात् सांडूनियां सर्व जाती ॥15
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मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे ।
अकस्मात् तोही पुढें जात आहे ।
पुरेना जनीं लोभ रे क्षोभ त्यातें ।
म्हणोनी जनीं मागुता जन्म घेतें ॥16
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मना सज्जना
मनी मानव व्यर्थ चिन्ता वहातें ।
अकस्मात होणार होऊनि जातें ।
घडे भोगणें सर्वही कर्मयोगे ।
मतीमंद ते खेद मानी वियोगे ॥17
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मना सज्जना
मना राघवेंवीण आशा नको रे ।
मना मानवाची नको कीर्ति तूं रे ।
जया वर्णिती वेद-शास्त्रें पुराणें ।
तया वर्णितां सर्वही श्लाघ्यवाणें ॥18
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मना सज्जना
मना सर्वथा सत्य सांडूं नको रे ।
मना सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे ।
मना सत्य तें सत्य वाचे वदावें ।
मना मिथ्य तें मिथ्य सोडूनि द्यावें ॥19
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मना सज्जना
बहू हिंपुटी होइजे मायपोटी ।
नको रे मना यातना तेंचि मोठी ।
निरोधें पचे कोंडिलें गर्भवासीं ।
अधोमूख रें दुःख त्या बाळकासी ॥20
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मना सज्जना
मना वासना चूकवीं येरझारा ।
मना कामना सांडि रे द्रव्यदारा ।
मना यातना थोर हे गर्भवासी ।
मना सज्जना भेटवीं राघवासी ॥21
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मना सज्जना
मना सज्जना हीत माझें  करावें ।
रघूनायका दृढ चित्तीं धरावें ।
महाराज तो स्वामि वायूसुताचा ।
जना उद्धरी नाथ लोकत्रयाचा ॥22
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मना सज्जना
न बोले मना राघवेंवीण कांहीं ।
जनीं वाउगे बोलता सूख नाही ।
घडीनें घडी काल आयुष्य नेतो ।
देहांतीं तुला कोण सोडूं पहातो ॥23
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मना सज्जना
रघूनायकावीण वाया शिणावें ।
जनासारिखें व्यर्थ का वोसणावें ।
सदा सर्वदा नाम वाचें वसो दे ।
अहंता मनीं पापिणी ते नसो दे ॥24
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मना सज्जना
मना वीट मानूं नको बोलण्याचा ।
पुढें मागुता राम जोडेल कैंचा ।
सुखाची घडी लोटतां सूख आहे ।
पुढें सर्व जाईल कांही न राहे ॥25
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मना सज्जना
देहेरक्षणाकारणें यत्न केला ।
परी शेवटीं काळ घेऊनि गेला ।
करीं रे मना भक्ति या राघवाची ।
पुढें अंतरीं सोडि चिंता भवाची ॥26
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मना सज्जना
भवाच्या भयें काय भीतोस लंडी ।
धरीं रे मना धीर धाकासि सांडी ।
रघूनायकासारिखा स्वामि शीरीं ।
नुपेक्षी कदा कोपल्या दंडधारी ॥27
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मना सज्जना
दिनानाथ हा राम कोदंडधारी ।
पुढें देखता काळ पोटीं थरारी ।
मना वाक्य नेमस्त हें सत्य मानीं ।
नुपेक्षी कदा रामदासाभिमानी ॥28
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मना सज्जना
पदां राघवाचे सदा ब्रीद गाजे ।
बळे भक्तरीपूशिरीं कांबि वाजे ।
पुरी वाहिली सर्व जेणें विमानी ।
नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी ॥29
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मना सज्जना
समर्थाचिया सेवका वक्र पाहे ।
असा सर्व भूमंडळीं कोण आहे ।
जयाची लिला वर्णिती लोक तीन्ही ।
नुपेक्षी सदा राम दासाभिमानी ॥30
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॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥
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