सोमवार, 13 जनवरी 2025

IN RETROSPECT

अहं ब्रह्मास्मि

I AM THAT

देहो न जानाति सतो न जन्म

देहप्रमाणोऽन्य उदेति मध्ये।

अहंकृतिः ग्रन्थि विबन्ध सूक्ष्म

-शरीर - चेतो - भवजीवनामा।। 

(श्री रमण महर्षि कृत सद्दर्शनम्)

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जीवमात्र का जन्म अज्ञान में, और अज्ञान से ही होता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं। इस अज्ञान में ही किसी भी जैव-प्रणाली में अहं-स्फुरण के अव्यक्त रहकर भी व्यक्त जगत् में एक भावना के रूप में उद्भव के बाद यह स्वयं के अस्तित्व का उद्घोष जिस शब्द से करता है उस शब्द का उच्चारण उस सबमें समान उस एक ही भावना का द्योतक होने पर भी मनुष्यों की भिन्न भिन्न भाषाओं में भिन्न भिन्न रूप से किया जाता है। यद्यपि मनुष्यों से भिन्न दूसरे जीव इस भावना को शाब्दिक रूप से व्यक्त नहीं कर पाते हैं, या करते भी हों, तो हम नहीं जानते कि क्या ऐसा होता होगा, और क्या उन्हें इसकी कोई आवश्यकता होती भी होगी? किन्तु हम इतना तो कह ही सकते हैं कि यह भावना मूलतः अत्यन्त शुद्ध रूप में अपने अस्तित्व के बोध का ही प्राकट्य होती है, जिसे व्यक्त करने हेतु किसी शब्द की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। जिस प्रकार से प्रत्येक प्राणी में यह जन्मजात होती ही है और इसके ही साथ एक और भावना इस भावना के प्रतिफल के रूप में इसके साथ उत्पन्न होती है वह है इससे भिन्न "यह" के रूप में अज्ञान से ही उत्पन्न दूसरी भावना जिसे "इदं" अर्थात् संसार कहा जाता है। "अहं" की भावना की ही तरह वह दूसरी भावना भी शरीर और मन दोनों ही के अन्तर्गत जन्म लेती है, और इसलिए शरीर और मन दोनों को ही "मैं" शब्द से इंगित वस्तु की तरह मान लिया जाता है। यह सब अनायास ही होता है और बुद्धि में यह प्रश्न तक नहीं उठता कि "मैं" किस वस्तु का नाम है? और यह भी सत्य है कि भावना की तरह यह वस्तु, शरीर या मन नहीं होती। इस प्रकार का अज्ञान ही वह है जिसमें यह त्रुटि अनायास घटित होती है। बुद्धि ही इस त्रुटि का कारण, आधार और इससे उत्पन्न भ्रम से मोहित अनुभव और स्मृति होती है। और यह सब बुद्धि के द्वारा किया जाता हो ऐसा भी नहीं है। और इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य या किसी भी जीव अर्थात् चेतन प्राणी का जन्म अज्ञान में और अज्ञान से ही ग्रस्त बुद्धि में ही होता है और वह इससे नितान्त  अनभिज्ञ होता है।

और इस प्रकार से मोहित बुद्धि में क्रमशः अनेक प्रकार के अनुभव, और अनुभवों की स्मृतियों की बहुत सी श्रँखलाएँ भी उत्पन्न हो जाती हैं और वह उसी के प्रभाव से निरन्तर भिन्न भिन्न संकल्पों, निर्णयों से और तात्कालिक रूप से आवश्यक प्रतीत होनेवाली प्रेरणाओं से सतत परिचालित हो रहता है।

यह सब किसी और के बारे में नहीं, अपने ही (जीवन के) बारे में मेरे द्वारा कहा जा रहा है। इसी प्रकार की बुद्धि से प्रेरित और परिचालित मनःस्थिति में जीवन में अपने शरीर और / या मन होने के या न होने के परस्पर भिन्न भिन्न और विपरीत अनुमानों के द्वन्द्व से मोहित बुद्धि में कभी कभी तो पूरे संसार को ही और कभी कभी अपने आपको ही समाप्त कर लेने की प्रबल भावना भी जागृत हो सकती है। शरीर पर आए मृत्युभय / संकट का आभास उसकी सुरक्षा की चिन्ता का कारण होता है, और  जिसके फलस्वरूप बुद्धि से प्रेरित मन में ही, अज्ञान में ही यह त्रुटिपूर्ण संकल्प और आत्महत्या कर लेने का क्षणिक विचार भी तात्कालिक रूप से जन्म ले लेता है।

अपने आपको बुद्धि का स्वामी माननेवाला "मैं" यह नहीं देख पाता है कि वह स्वयं भी बुद्धि में और बुद्धि ही से उत्पन्न हुआ एक क्षणिक भाव "मैं"- भावना मात्र है।

यह "मैं" जो क्षण क्षण ही जन्म लेता हुआ और फिर क्षण क्षण ही विलीन होता हुआ यद्यपि अपने आपको स्वतंत्र मान लेता है,  उसकी यह मान्यता भी क्षण क्षण ही "मैं" की तरह प्रकट होकर पुनः पुनः विलीन भी होती रहती है जबकि इसकी पृष्ठभूमि में विद्यमान अस्तित्व न तो प्रकट और न ही विलीन हो सकता है।

बचपन से ही इसी प्रकार से "मैं" भी बुद्धि से प्रेरित और परिचालित होता हुआ जीता रहा और मन की पृष्ठभूमि में कौंधता यह प्रश्न कि "यह सब, संसार और / या जीवन क्या है?" सतत मुझे व्याकुल करता रहा। 

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि "मैं" कहाँ, किस दिशा में जा रहा हूँ, तो फिर "मैं कौन?" जैसा गूढ प्रश्न मेरी बुद्धि को आकर्षित करता, इसकी तो कोई संभावना दूर दूर तक कहीं नहीं थी।

अपनी ऐसी ही त्रुटिपूर्ण और मोहित बुद्धि से प्रेरित "मैं" बस अंधेरे की तरह टटोल टटोल कर जीवन में आगे बढ़ रहा था। मुझे यह तो समझ में आ रहा था कि इस तरह जीने का कोई मतलब नहीं है, इससे "मैं" कहीं नहीं पहुँच सकूँगा, इसलिए "मैं" ने बस इतना ही तय किया कि रुकूँ और स्थिति का अवलोकन और आकलन करूँ और इसके लिए "मैं" ने अन्य सब चीजों से अपना ध्यान पूरी तरह से हटा लिया और गंभीरतापूर्वक श्री रमण महर्षि, और श्री जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को समझने का प्रयास किया। और इस सबका सार मुझे यही प्राप्त हुआ जिसकी पुष्टि मुझे इनकी शिक्षाओं से हुई। इन सभी शिक्षाओं को जिस एक सूत्र में मैंने पाया वह था -

हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम्

ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।

हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा

पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।।

जन्म से और पाँच वर्ष की आयु से ही मुझे यह स्पष्ट था कि मुझे अपने जीवन में आगे चलकर क्या होना है। कुछ या कोई करना या बनना नहीं, बस चलते चले जाना है। इसलिए जीवन जब और जैसा मेरे सामने प्रस्तुत हुआ उसे मैंने एक प्रश्न की तरह, न कि समस्या की तरह ग्रहण किया। यह भ4 सच है कि मुझे कभी सफलता और कभी असफलता भी मिली। लेकिन मैंने जीवन में संघर्ष कभी नहीं किया। श्रम तो अवश्य ही किया। यहाँ तक कि बहुत बार मैं थक भी जाता था। मन में बस यही प्रबल इच्छा थी कि मैं आर्थिक दृष्टि से अपने पाँवों पर खड़ा हो जाऊँ। और यह इच्छा पूरी होते ही मैंने पूरा प्रयास और शक्ति यह जानने में लगा दी कि मेरी रुचि उसमें है और क्यों है। स्पष्ट था कि मैं अनायास, जानते या न जानते हुए भी आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़ा। बहुत प्रकार से इस बारे में खोजबीन की। बचपन से ही संस्कृत सतोत्रों आदि का पाठ करना मुझे अत्यन्त प्रिय था, और न जाने कैसे संस्कृत भाषा की रचना मुझे धीरे धीरे समझ में आने लगी। आवश्यक अनुभव होने से मैंने संस्कृत व्याकरण का भी गंभीर अध्ययन किया। शायद इसका एक कारण यह था कि मैं संस्कृत ग्रन्थों को उनके मूल रूप में पढ़ना और समझना चाहता था, उनके अनुवाद के माध्यम से नहीं। और मैं किसी बौद्धिक सिद्धान्त की खोज नहीं कर रहा था। क्योंकि तब तक के मेरे अध्ययन से मुझे यह लगने लगा था कि बुद्धि अर्थात् विज्ञानमय कोष भी पाँच कोषों में से ही एक है और परम सत्य को जान पाने के लिए इसका भी अतिक्रमण किया जाना आवश्यक है। और इसलिए बुद्धि को भी मैं संशय की दृष्टि से देखता था और गीता के श्लोकों में वर्णित 

यः बुद्धेः परतस्तु सः

एवं भूतानामस्मि चेतना 

के आधार पर अध्यात्म से संबंधित अपनी खोज में आगे बढ़ रहा था।

कहना न होगा कि इस दिशा में श्री रमण और श्री जे. कृष्णमूर्ति के साहित्य से मुझे अपार सहायता मिली। विधि के विधान, प्रारब्ध, ईश्वरकृपा या संयोगवश अपनी खोज के अन्त में श्री निसर्गदत्त महाराज के निरूपणों के विश्वप्रसिद्ध संग्रह  :

 I AM THAT 

के रूप में मुझे जो प्रसाद प्राप्त हुआ तो यह प्रबल प्रेरणा भी हृदय में जागृत हुई कि यदि इस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद उपलब्ध हो सके तो वह हिन्दीभाषियों के लिए असाधारण अप्रतिम, अनुपम और अमूल्य उपहार होगा। और यह मेरे लिए तो अवश्य ही ऐसा ही था। इसी प्रेरणा से मैं स्वयं ही इस प्रयास में उत्साहपूर्वक जुट गया। यह एक और कहानी है। वर्ष 2001 में जब इसका प्रथम संस्करण 

चेतना प्रकाशन मुम्बई से प्रकाशित हुआ तो मैं धन्य हो गया। मेरे जैसे अकिञ्चन के लिए तो यह एक अद्भुत् चमत्कार ही था।

इतने वर्षों के बाद अब यह ग्रन्थ हिन्दी में :

"अहं ब्रह्मास्मि"

YouTube  पर पॉडकास्ट  के रूप में प्रस्तुत हो रहा है। और इसे कौन कर रहा है इससे मैं बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। हाँ, अभी जब दो तीन माह पहले यह  YouTube  पर दिखाई दिया तो आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई। 

अब Retrospect में देखता हूँ तो मन बस चकित होता है।

इस पोस्ट को लिखने का एकमात्र उद्देश्य  सिर्फ अपनी यही भावना व्यक्त करना है।

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